Tuesday, November 03, 2009

ख्वाब ख़त्म नहीं होते

धीमी सी आँखों से
सपने खुल रहे हैं
आँखों में रोशनी
और आसमां घुल रहे हैं

पलकें आतुर कि समा जाये
दुनिया बीच उनके
ठोस हकीकत
में जैसे यहाँ
सपने धुल रहे हैं

यहाँ आँखें बहुत हैं
जो भरी-भरी सी दिखती
सबमे ऊँचाई सब की सब
पलकें उठाये रखती

दुनिया में नहीं जगह इतनी
के पूरे सब सपने हों
पर किसका होगा,
पहले से ज़िन्दगी,
फर्क नहीं रखती

हो जाये पूरी चाह तो रहती
कमी सी दिल में उसकी
फिर भर जाये इक नए ख्वाब से
जगह महफिल में उसकी

चले पहिये सा चक्र यही
हर कटती ज़िन्दगी में
चलेगा पहिया,
चाहे रुक जाये
धड़कन दिल में उसकी

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